यह कैसा नीरव आलाप!
एक नव्य भूमिका अन्तरित, हो न सके जिसका आमाप।
अभिनय पर इक शून्य प्रसारित, यह कैसा नीरव आलाप॥1॥
बुद्धों की मस्ती तो मन से परे,
अकथ अनुभव में खिलती।
चित्तरहित चित, शून्य गुफा में,
नीरस, मादक स्थिति मिलती।
पृथक-पृथक रहनी के तट हैं, किन्तु प्रज्ञता इक सम व्याप।
अभिनय पर इक शून्य प्रसारित, यह कैसा नीरव आलाप ? 2॥
नाम-रूप-उपराम प्रतिष्ठा,
संज्ञाशून्य निनाद भरे।
प्रकट वेदना बस अभिनयहित,
जागृति में संस्कार मरे।
गहरे तक नीरवता व्यापी, बाह्यघाट तक बसे प्रलाप।
अभिनय पर इक शून्य प्रसारित, यह कैसा नीरव आलाप! ॥3॥
चिन्ह नहीं संज्ञाओं के हैं,
व्याधि कहाँ, जब ध्यान घटे ?
प्रत्यूह रहे अवकल्पित सब,
निर्भाव, अजर श्रृंगार उठे।
शून्य गगन में पावस उतरे, अब कैसा मारक उत्ताप?
अभिनय पर इक शून्य प्रसारित, यह कैसा नीरव आलाप!4॥
क्या सुलझाव, कि हो कोलाहल!
नीरस लगे अपार विपक्षी।
हँसे कृष्ण, हो बिद्ध वाण से,
पिञ्जर में आह्लादित पक्षी।
'सत्यवीर' गोपालन अद्भुत, भंग हुआ सन्धानित चाप।
अभिनय पर इक शून्य प्रसारित, यह कैसा नीरव आलाप! 5॥
{पुस्तक पथ को मोड़ देख निज पिय को}