Thursday, July 21, 2016

गहरे में जब मिले शिखर

* गहरे में जब मिले शिखर *
मिटते-मिटते सृजन हो गया, उद्गम से अभिसिक्त अमर।
यह आश्चर्य समझ में आये,गहरे में जब मिले शिखर ॥1॥

मोती की सम्प्राप्ति तभी,
जब हो खुद खोने का साहस।
गलकर विकसित हुआ तपस्वी,
द्रव सूखे औ बरसे रस।
मृदुता की परिसीमा आयी, हृदय बना दुष्कर-प्रस्तर।
यह आश्चर्य समझ में आये, गहरे में जब मिले शिखर॥2॥

एक टेक पर बिकसी गंगा,
एक रूप पर विश्व मरे।
एक नाद में शब्द खो गये,
औ अगीत गुंजार भरे।
स्थिर पद, पर नृत्य प्रचारित, बिहरे प्रकट शब्दहत्‌ स्वर।
यह आश्चर्य समझ में आये गहरे में जब मिले शिखर॥3॥

अपने प्रश्नों का हल खुद में,
खोजो! तब सच आयेगा।
कौन मनीषी ? कौन शास्त्र है ?
जो उत्तर दे पायेगा।
उठे प्रश्न का गर्भ दे रहा, एक निरंजनमय भास्वर।
यह आश्चर्य समझ में आये, गहरे में जब मिले शिखर॥4॥

भाव लुप्त, आवेश सुप्त है,
ज्योति व्याप्त, पर शिखा कौन है ?
अनगढ़ प्रस्तुति में जो मचले,
वह नटवर भी आज मौन है।
एक आवरण है आच्छादक, जो न बली था किंचित पर।
यह आश्चर्य समझ में आये, गहरे में जब मिले शिखर॥5॥

'सत्यवीर' आहार बन गये,
कंकड़, मिट्टी के उपहार।
विषपायी हर घट में व्यापे,
उल्टी धार बनी श्रृंगार।
निर्जल घाटपाट पर उतरी, अखिल सृष्टि-रसधार अपर।
यह आश्चर्य समझ में आये, गहरे में जब मिले शिखर॥6॥

अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक-'पथ को मोड़ देख निज पिय को' }

Monday, May 30, 2016

यह कैसा नीरव आलाप!

यह कैसा नीरव आलाप!

एक नव्य भूमिका अन्तरित, हो न सके जिसका आमाप।
अभिनय पर इक शून्य प्रसारित, यह कैसा नीरव आलाप॥1॥

बुद्धों की मस्ती तो मन से परे,
अकथ अनुभव में खिलती।
चित्तरहित चित, शून्य गुफा में,
नीरस, मादक स्थिति मिलती।
पृथक-पृथक रहनी के तट हैं, किन्तु प्रज्ञता इक सम व्याप।
अभिनय पर इक शून्य प्रसारित, यह कैसा नीरव आलाप ? 2॥

नाम-रूप-उपराम प्रतिष्ठा,
संज्ञाशून्य निनाद भरे।
प्रकट वेदना बस अभिनयहित,
जागृति में संस्कार मरे।
गहरे तक नीरवता व्यापी, बाह्यघाट तक बसे प्रलाप।
अभिनय पर इक शून्य प्रसारित, यह कैसा नीरव आलाप! ॥3॥

चिन्ह नहीं संज्ञाओं के हैं,
व्याधि कहाँ, जब ध्यान घटे ?
प्रत्यूह रहे अवकल्पित सब,
निर्भाव, अजर श्रृंगार उठे।
शून्य गगन में पावस उतरे, अब कैसा मारक उत्ताप?
अभिनय पर इक शून्य प्रसारित, यह कैसा नीरव आलाप!4॥

क्या सुलझाव, कि हो कोलाहल!
नीरस लगे अपार विपक्षी।
हँसे कृष्ण, हो बिद्ध वाण से,
पिञ्जर में आह्लादित पक्षी।
'सत्यवीर' गोपालन अद्भुत, भंग हुआ सन्धानित चाप।
अभिनय पर इक शून्य प्रसारित, यह कैसा नीरव आलाप! 5॥
{पुस्तक पथ को मोड़ देख निज पिय को}