* गहरे में जब मिले शिखर *
मिटते-मिटते सृजन हो गया, उद्गम से अभिसिक्त अमर।
यह आश्चर्य समझ में आये,गहरे में जब मिले शिखर ॥1॥
मोती की सम्प्राप्ति तभी,
जब हो खुद खोने का साहस।
गलकर विकसित हुआ तपस्वी,
द्रव सूखे औ बरसे रस।
मृदुता की परिसीमा आयी, हृदय बना दुष्कर-प्रस्तर।
यह आश्चर्य समझ में आये, गहरे में जब मिले शिखर॥2॥
एक टेक पर बिकसी गंगा,
एक रूप पर विश्व मरे।
एक नाद में शब्द खो गये,
औ अगीत गुंजार भरे।
स्थिर पद, पर नृत्य प्रचारित, बिहरे प्रकट शब्दहत् स्वर।
यह आश्चर्य समझ में आये गहरे में जब मिले शिखर॥3॥
अपने प्रश्नों का हल खुद में,
खोजो! तब सच आयेगा।
कौन मनीषी ? कौन शास्त्र है ?
जो उत्तर दे पायेगा।
उठे प्रश्न का गर्भ दे रहा, एक निरंजनमय भास्वर।
यह आश्चर्य समझ में आये, गहरे में जब मिले शिखर॥4॥
भाव लुप्त, आवेश सुप्त है,
ज्योति व्याप्त, पर शिखा कौन है ?
अनगढ़ प्रस्तुति में जो मचले,
वह नटवर भी आज मौन है।
एक आवरण है आच्छादक, जो न बली था किंचित पर।
यह आश्चर्य समझ में आये, गहरे में जब मिले शिखर॥5॥
'सत्यवीर' आहार बन गये,
कंकड़, मिट्टी के उपहार।
विषपायी हर घट में व्यापे,
उल्टी धार बनी श्रृंगार।
निर्जल घाटपाट पर उतरी, अखिल सृष्टि-रसधार अपर।
यह आश्चर्य समझ में आये, गहरे में जब मिले शिखर॥6॥
अशोक सिंह 'सत्यवीर'
{पुस्तक-'पथ को मोड़ देख निज पिय को' }
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